रविवार, 24 अक्तूबर 2010
तुम्हारा होना न होना.....
5तुम्हारा होना उतना नहीं होता
जितना तुम्हारा न होना ,
जब घर में होती हो तब एक बारगी ; एक जगह होती हो...
किचेन में गोल-गोल रोटियाँ सेंकते,
कलाई में गोल-गोल चूड़ियाँ खनकाते,
मुन्ने की ठुड्ढी पकड़ बाल संवारते
और कभी-कभी गृह-मंत्रालय का बजट समझाते॥
ऐसे ही कई फ्रेमों में बंटी-छंटी-थकी और ....पस्त !
पर आज जब नहीं हो
तो एक साथ सब जगह हो घर में
सर्वव्यापी।
दरवाजे की उस पहली दरार
जो खुलने से पहले दिखाती है तुम्हारी झलक
...से लेकर
झाड़ू की मूठ पर पड़े तुम्हारी उँगलियों के निशान तक ।
कहाँ नहीं हो ?
बिस्तर पर फिंके गीले तौलिये पर चिपका है तुम्हारा ताना-
"कोई और होती न तब पता चलता ..."
फर्श के पोंछे का वह कपडे का टुकड़ा , जो भीगा है तुम्हारे आदेश से-
"चप्पलें बाहर..."
आईने पर वो पुरानी बिंदियाँ जो चिपकीं हैं तुम्हारे सौन्दर्याभिमान के गोंद से-
"अभी भी ऐसी दिखती हूँ कि..."
तकिया फूली है तुम्हारे जिद के फाहे से
जो बन जाती थी हमारे बीच का बाघा बार्डर
शर्ट की कालर से उलझा है तुम्हारा इक बाल
जो वक्तेरुखसत की आखिरी निशानी है ।
सच कहूं मेरी परिणीता !
तुम्हारा होना उतना नहीं होता
जितना तुम्हारा न होना ...
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