बुधवार, 18 अगस्त 2010

.....चाँद और रकीब

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मैंने कहा तुम चाँद हो;
कोयल हो;
बारिश की फुहार हो;
और भी बहुत कुछ...
तुम्हारी उनीदीं आखें सिकुडीं;
कुन्मुनायीं;
भौहें तनीं ;
लबों से गुस्सा फूटा
मुझे ये सब नहीं पसंद.
'मैं' बस 'मैं' हूँ
तुम्हारी 'मन' और कुछ भी नहीं.
मैं मर गया तुम्हारे पे
तुम्हारे गुस्से पे.
और पूछा
'जब मैं नहीं रहूँगा तब?'
तुमने रख दीं अपनी हथेली मेरे होंठ पे.
और बोली
'हम दोनों तारे बन जायेंगे '
एक दिन सच में मैं नहीं रहा.
तुम्हे तारा पसंद था और मैं बन गया इक तारा
ताकता रहा तुम्हे छत पे कई रातें .
इक रात देखा मैंने
तुम किसी के साथ थी शायद 'रकीब' ;
तुम्हारी फरमाईश पे वो इक गीत गुनगुना रहा था .
तुम्हें चाँद कह रहा था;
तुम्हें कोयल कह रहा था;
तुम्हें बारिश की बूँद कह रहा था;
और भी बहुत कुछ.
तुम मुस्कुरा रही थी.
इतने में ('मैं' ) इक तारा टूट के गिरा
तुम्हारे पास से गुजरा.
तुम छुप गयी (रकीब) के सीने में
ये कहती मुझे तारे नहीं पसंद.
उसने कहा
'हाँ, जनता हूँ 'मन''.






........गुलज़ार के नाम .....

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(आज गुलज़ार साहब का जन्मदिन है ...उनपे कुछ लिखना पहली प्रेमिका को पहला ख़त लिखने जैसा है ...फिर भी जैसा की मेरे लिए मेरा ब्लॉग मन में उमड़ते-घुमड़ते बादलों के बरसने के लिए एक जमीं जैसा है...जिसपे कुछ गोंज लेता हूँ...आज एक और कोशिश ...)
तुम जो कह दो तो
चाँद आज की क्या?
किसी भी रात नहीं डूबेगा;
जागेगा सारी रात तुम्हारी निम्मी -निम्मी नज्मों जैसा ।
बेसुवादी रतियों में भी
तुम दिखा जो देते हो चाँद के अक्स में
रोटी, कभी चिकना साबुन ,
कभी माँ ;कभी महबूबा ।
तुम्हारा कुछ न कुछ सामान पड़ा है उनके पास
जो पस्मीनें की रातों में
प्यार के कुछ लम्हें फिलहाल जी लेना चाहतें हैं।
तुम्हारे प्यार के पत्ते झर भी जाएँ
पर उनकी खुशबू कभी चुप नहीं होती।
कभी तो खुद रांझा बन जाती है;
पर्सनल से सवाल करती है;
इश्क का नमक बन जाती है;
कभी नीम तो कभी शहद बन जाती है ।
उम्र भले ही पक के सुफैद हो गयी हो
पर महसूसने पे तो यही लगता है
दिल तो बच्चा है जी ...

शनिवार, 14 अगस्त 2010

ज़ख्म

2









अब
भी
पा लेता
हूँ
कुछ
तो
लज्जत
उनमें,

वक्त-
बेवक्त
जख्मों
को
खुजा
लेता
हूँ.....

जिंदगी और मोम ...

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जिंदगी के सारे सपनों का मोम ,
सारे रिश्ते की जमावट
तो कब की पिघल चुकी थी ।
बस रह गया था तुम्हारे साथ का इक धागा
जो जलाए रखा था जीवन की लौ
लो
आज वो भी बुझ गया
कुछ अवशेष सा जम गया मेज पर
जिसे वक्त खुरच-खुरच के साफ़ कर डालेगा ।
फिर ...???

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

दूध, दाग और प्यार...

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जिंदगी के चूल्हे पर

तुम्हारे साथ की तपिश से

प्यार का दूध अभी उफना ही था

कि

तुमने हाथ झटक चूल्हा ही बुझा दिया

और रख दिया तर्क का ढक्कन

कि ...

नहीं तो सारा दूध उफन जाता ;

सच कहना

आखिर किसका तुम्हे डर था ?

मेरे प्यार के उफान का ,

तुम्हारे हाथ के जल जाने का,

दाग लग जाने का.