मैंने कहा तुम चाँद हो;
कोयल हो;
बारिश की फुहार हो;
और भी बहुत कुछ...
तुम्हारी उनीदीं आखें सिकुडीं;
कुन्मुनायीं;
भौहें तनीं ;
लबों से गुस्सा फूटा
मुझे ये सब नहीं पसंद.
'मैं' बस 'मैं' हूँ
तुम्हारी 'मन' और कुछ भी नहीं.
मैं मर गया तुम्हारे पे
तुम्हारे गुस्से पे.
और पूछा
'जब मैं नहीं रहूँगा तब?'
तुमने रख दीं अपनी हथेली मेरे होंठ पे.
और बोली
'हम दोनों तारे बन जायेंगे '
एक दिन सच में मैं नहीं रहा.
तुम्हे तारा पसंद था और मैं बन गया इक तारा
ताकता रहा तुम्हे छत पे कई रातें .
इक रात देखा मैंने
तुम किसी के साथ थी शायद 'रकीब' ;
तुम्हारी फरमाईश पे वो इक गीत गुनगुना रहा था .
तुम्हें चाँद कह रहा था;
तुम्हें कोयल कह रहा था;
तुम्हें बारिश की बूँद कह रहा था;
और भी बहुत कुछ.
तुम मुस्कुरा रही थी.
इतने में ('मैं' ) इक तारा टूट के गिरा
तुम्हारे पास से गुजरा.
तुम छुप गयी (रकीब) के सीने में
ये कहती मुझे तारे नहीं पसंद.
उसने कहा
'हाँ, जनता हूँ 'मन''.
कोयल हो;
बारिश की फुहार हो;
और भी बहुत कुछ...
तुम्हारी उनीदीं आखें सिकुडीं;
कुन्मुनायीं;
भौहें तनीं ;
लबों से गुस्सा फूटा
मुझे ये सब नहीं पसंद.
'मैं' बस 'मैं' हूँ
तुम्हारी 'मन' और कुछ भी नहीं.
मैं मर गया तुम्हारे पे
तुम्हारे गुस्से पे.
और पूछा
'जब मैं नहीं रहूँगा तब?'
तुमने रख दीं अपनी हथेली मेरे होंठ पे.
और बोली
'हम दोनों तारे बन जायेंगे '
एक दिन सच में मैं नहीं रहा.
तुम्हे तारा पसंद था और मैं बन गया इक तारा
ताकता रहा तुम्हे छत पे कई रातें .
इक रात देखा मैंने
तुम किसी के साथ थी शायद 'रकीब' ;
तुम्हारी फरमाईश पे वो इक गीत गुनगुना रहा था .
तुम्हें चाँद कह रहा था;
तुम्हें कोयल कह रहा था;
तुम्हें बारिश की बूँद कह रहा था;
और भी बहुत कुछ.
तुम मुस्कुरा रही थी.
इतने में ('मैं' ) इक तारा टूट के गिरा
तुम्हारे पास से गुजरा.
तुम छुप गयी (रकीब) के सीने में
ये कहती मुझे तारे नहीं पसंद.
उसने कहा
'हाँ, जनता हूँ 'मन''.
11 Response to .....चाँद और रकीब
बहुत खूब| धन्यवाद्|
आप की रचना 20 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत भावपूर्ण रचना ...कोमल एहसास लिए हुए
उफ़्…………दर्द ही दर्द भरा है अब इससे आगे क्या कहूँ।
यूँ लिख जाना आसान नही...! कि गुजरे हो आप..हर उस लम्हे से...यह बयानबाजी काफी नही. मुझे अफ़सोस रहेगा हर वाकये पर..औ' फख्र रहेगा तेरे इस अंदाज पे सागर. जाने कितनी कश्तियाँ डूबी होंगी तारे खोजते-खोजते तूफ़ान में बादल भरे आकाश में..पर जबसे इंसान कश्तियाँ बनाने लायक हुआ..उसका इरादा नही टूटा..! आप उस हौसले की एक बहुत महत्वपूर्ण छोटी सी ही सही कड़ी हो...दोस्त.! भूलना नही अपनी बिसात ...जिन्दगी की बहुरंगी बिसात के सामने..! अभी उसके सारे रंग कहाँ देखे तुमने नादाँ..?
क्या कहूँ...निःशब्द हूँ...
कसम से...
लाजवाब ... क्या बात लिख दी है ... समय और परिस्थिति के बदलाव को अपनी इच्छा या मजबूरी ... सहना तो पढ़ता ही है ....
आप बहुत अच्छा लिखते हैं .. देर से आपके ब्लॉग पर पहुंचने के लिए खेद है ... पर अभी और पढ़ने का मन है ,... अच्छी रचना ..
bahut khoob sushil bhai badhai ho.. aap ki kavita na jaane kitne dilo ki
kahani kah gayi.. esi tarh apni aur apne jaise hazaron dilo ki unkahi dastan ko shabdon k rup mae dhalte rahea ....
बेहद उम्दा!
आप सभी को ये गोंजा-गांजी पसंद आई ...आपने हौसला बढाया शुक्रिया ....अभी तक बस पढता रहा हूँ ..अब लग रहा है कि पढने का सही उत्तराधिकार मिलेगा ...कुछ मैं भी दे पाउँगा ....श्रीश भाई आप टिप्पणी भी करतें हैं तो एक रचना लगती है...अनामिका जी से माफ़ी चाहता हूँ कि चर्चा मंच पे नहीं आ पाया ...उस चयन के लिए धन्यवाद ...क्या करूं? सायबर कैफे में कुछ बात नहीं बनती ...इसलिए आप लोगों से दूरी बनी रहती है...कोशिश करूँगा यह कम हो...
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